आज छोटी लाइन इमामबाड़े पहुंचा और खुशी हुई की माशाल्लाह से बेहतर अंदाज में इमामबाड़े की तामीर हो रही है। बहुत से लोग इस इमामबाड़े के पहले यहा...
आज छोटी लाइन इमामबाड़े पहुंचा और खुशी हुई की माशाल्लाह से बेहतर अंदाज में इमामबाड़े की तामीर हो रही है।
बहुत से लोग इस इमामबाड़े के पहले यहां क्या था यह नहीं जानते।
बात उस वक्त की है जब मैं जवान था और शब ए आशूर गश्त जियारत करते हुए बलुआघाट और वहां से छोटी लाइन तक जाया करता था।
एक साल जब छोटी लाइन जियारत करके लौटा की सुबह सुबह पता चला की वहां पे मुअज्जा हुआ।
मेरे वालिद साहब सय्यद मोहम्मद जैनुद्दीन मरहूम रेलवे में इंजीनियर थे और उनके जूनियर इंजीनियर आलम साहब जौनपुर में थे।
उन जूनियर इंजीनियर के 7 साल के बेटे ने पूछने पे बताया की तीन सवार थे जिनके चेहरे नूरानी थे और वे एक मकाम तक गए फिर उनके बंगलो से होते हुए पीछे चले गए।
फिर जिस मकाम तक गए थे वहां कदम ए रसूल मिला।
वहां तक ईरानी खानाबदोश थे जो मातम कर रहे थे घोड़े के टापो के निशान थे।
निशान मैने खुद देखे थे लेकिन बाकी बातें दूसरे बता रहे थे।
आज जिस स्थान पे यह इमामबाड़ा बना हुआ है वहां कुछ लोधी वंश के हमले के दौर की कब्रें भी बनी है जो उस स्थान पे कब्रिस्तान होने की तरफ इशारा करता है ऐसे में वहां कुछ तबर्रुकात के मिलने की बात में सच्चाई हो यह मुमकिन भी है।
कब्रें अब अपना वजूद खो रही हैं और कुछ वर्षों में खत्म भी हो सकती हैं। जबकि मेरा मानना है की किसी भी जगह की पुरानी पहचान को कायम रखने से उस स्थान की अहमियत बढ़ जाया करती हैं।