इस्लाम शांति और सब्र का मज़हब है? 1400 साल की तारीख़ में प्रैक्टिकली यह बात रसूल ए अकरम सअ और ख़ानवादा ए बनु हाशिम ने बार-बार साबित करके दिख...

इस्लाम शांति और सब्र का मज़हब है? 1400 साल की तारीख़ में प्रैक्टिकली यह बात रसूल ए अकरम सअ और ख़ानवादा ए बनु हाशिम ने बार-बार साबित करके दिखाई। तारीख़ में बद्र का बदला, हुनैन का बदला, ख़ैबर का बदला, जमल का बदला लेने के ऐलान तो मिले लेकिन आले बनु हाशिम ने हज़रत हमज़ा की शहादत पर सब्र किया, नबी ए करीम सअ को ज़हर देने वालों पर लश्कर लेकर न जा चढ़े, फातेमा के बेवक़्त मौत पर ख़ामोश रह गए, हज़रत अली की शहादत पर सब्र का दामन थाम लिया, इमाम हसन के क़ातिलों से बदले के झंडे बुलंद न किए। हद है कि कर्बला में इमाम हुसैन, उनके असहाब और छोटे-छोटे बच्चे तक बेरहमी से मार दिए गए मगर मौक़ा मिलने पर भी हाथ रोक लिए। जब भी ऐसे मक़ाम आए, आले रसूल ने हमेशा कहा कि उम्मत में निफाक़ न होने देंगे। तारीख़ शाहिद है कि पनाह में आए सनान इब्ने अनस को भी जान की अमान मिली और करबला तक घेर कर लाने वाले हुर को भी। आले अबु तालिब ने ज़ुहैर इब्ने क़ैन को भी गले लगाया और मुहम्मद इब्ने अबु बक्र को भी। ऐसा न है कि लड़ने या बदला लेने की वक़त ओ क़ूवत न रखते थे। लोगों ने बद्र, उहद, हुनैन, ख़ंदक, ख़ैबर, जमल, सिफ्फीन में बनु हाशिम के जवानों की दिलेरी भी देखी और हौंसले भी। मैदान में किसी ने ललकारा तो पीठ न दिखाई और मैदान में चले गए तो कभी जान की अमान न मांगी। या तो फतेहयाब लौटे या शहीद हुए, मैदान छोड़कर भागे नहीं। जानते हैं ज़ुल्म हुआ, ज़्यादती हुई, इसके बावजूद 1400 साल से उनके मानने वाले भी ख़ुद को अज़ीयत दे रहे हैं, लगातार हुए ज़ुल्म के ख़िलाफ शांतिपूर्ण प्रोटेस्ट कर रहे हैं, ग़म मना रहे हैं लेकिन बनु उमैया या उनके मानने वालों से बदला लेने की बात नहीं कहते। तमाम ज़ुल्म सह कर, बहुसंख्यकवाद के बोझ में दबकर, कुफ्र के फत्वे खाकर, अपने अजदाद को बुरा कहलवा कर भी तोप, तलवार लेकर किसी पर नहीं चढ़ते या बम बांधकर मस्जिदों में नहीं फटते। और कितना इत्तेहाद चाहिए भाई?
Zaigham murtaza
Sr journalist