हुसैन टीकरी के अनसुलझे रहस्य : जहां आज भी लगती है रूहों की अदालत अपने मुल्क हिंदुस्तान की जहां पर तीन राज्यों की सरहदें मिलती हैं महाराष्...
हुसैन टीकरी के अनसुलझे रहस्य : जहां आज भी लगती है रूहों की अदालत
अपने मुल्क हिंदुस्तान की जहां पर तीन राज्यों की सरहदें मिलती हैं महाराष्ट्र मध्य प्रदेश और राजस्थान दोस्तों रतलाम के पास एक छोटी सी जगह है जावरा शरीफ उसी के पास एक पवित्र दरगाह है जिसका नाम है हुसैन टेकरी
ये वो जगह है जहां पर मौला हज़रत अली और मौला अब्बास की दरगाहे हैं,,, आज से कई साल पहले मेरा वहां पर जाना हुआ था उन दिनों में पैरा साइकोलोजी पर रिसर्च कर रहा था मन में कई तरह के सवाल रह रहकर उठा करते थे कि क्या वाकई भूत प्रेतों का अस्तित्व है और उनसे जुडी हुई जो घटनाएं हैं उन में कितनी सच्चाई है।
अपने इन्हीं सवालों का जवाब पाने के लिए मैं ल़ख़नऊ से चलकर दूसरे दिन तमाम रहस्यों और भूत प्रेतों की कहानियों से भरी जगह हुसैन टेकरी पहुंच गया....
हुसैन टेकरी एक अच्छी खासी आबादी वाला कस्बा हुआ करता था,,, उन दिनों वहां पर ज्यादातर आबादी मुस्लिम समुदाय की थी और कुछ हद तक वहां पर हिंदू भी रहते थे लेकिन सब की आस्था बिल्कुल एक जैसी ही थी..... वहां के ज्यादातर निवासियों की कमाई का ज़रिया वही लोग थे जो लोग वहां पर जियारत करने के लिए आया करते थे,, इनमें उन लोगों की तादात बहुत ज्यादा होती थी जो लोग भूत प्रेत या एैसी ही किसी शैतानी ताकतों के शिकार हुआ करते थे और वहां पर रूहानी इलाज के लिए आया करते थे।
वहीं के स्थानीय निवासी जो कि बड़े ही विनम्र और मिलनसार जावेद सिद्दीकी नाम के एक शख़्स थे उनके घर के ठीक नीचे उनका छोटा सा एक चाय नाश्ते का स्टॉल था तो साहब वहां तक पहुंचते-पहुंचते शाम हो चुकी थी और लम्बे सफर की थकान मुझ पर काफी हद तक हावी थी इसलिए वहां पर बैठकर मैंने चाय पी और चाय पीने के दौरान हीं जावेद साहब से मेरा बड़ा मुख़्तलिफ़ सा परिचय भी हो गया था।
मेरे साथ मेरे हमसफर मेरे ख़ास दोस्त जनाब प्रदीप अली साहब भी थे और उनका एक नौकर जो कि हमारा सामान और असबाब उठा कर चलने के लिए हमारे साथ था
सच पूछा जाए तो हुसैन टेकरी के बारे में मुझे जनाब प्रदीप अली साहब ने ही बताया था जो कि पहले भी कई बार हुसैन टेकरी की ज़ियारत के लिए आ चुके थे और वहां की जो पवित्र दरगाह है उसके प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा का भाव था।
ख़ैर चाय पीने के बाद जावेद साहब ने हमसे पूछा कि आप लोग यहां पर कहां ठहरेंगे जब हमने उन्हें बताया कि हम बस सफर से अभी अभी आए हैं और ठहरने के लिए यहां पर कोई माकूल जगह ढूंढ रहे हैं तो उन्होंने बा एख़लाक हमसे अपने घर में ही रुकने के लिए गुज़ारिश की और उन्होंने कुछ इस अंदाज़ में हमें अपना मेहमान बनाने की पेशकश की कि हम लोग चाह कर भी उन्हें मना नहीं कर सके।
वो बड़े अदब से हमको अपने घर के मेहमान ख़ाने वाले हिस्से मे ले गये और हमारे रहने और आराम करने के तमाम इंतज़ामात खुद ही करने लगे
हमारे कमरों से लगा हुआ एक बहुत ही साफ सुथरा गुस्लखाना भी वहां पर था जब तक हम लोग नहा धोकर फ्रेश हुए तब तक जावेद साहब नें रात का खाना हमारे कमरे में ही लगवा दिया था
गरमा गरम लजीज़ खाने की खुशबू से हम सब की भूख और बढ़ गई थी.... खास मेरे लिए शुद्ध देसी घी में ज़ीरे और लहसुन से बघारी हुई अरहर की दाल और आलू गोभी की दम लगी हुई भुनें खड़े मसालों की सब्जी बनवाई गई थी और वह भी इसलिए क्योंकि मैं शाकाहारी हूं,,,,प्रदीप साहब और उनके सहायक के लिए मुर्ग़ कौरमा और हरी चटनी के साथ तली हुई रोहू मछली परोसी गई थी,,, अंधे को क्या चाहिए बस दो आंखें और क्या.... खाने के बीच गरमा गरम चूल्हे की सिकी हुई रोटियां आती रही।
खाना खाने के बाद हम लोग जावेद साहब की मेहमान नवाज़ी का ज़िक्र करते रहे,,,
और इसी बीच हम लोग कब गहरी नींद मे सो गये हम लोगों को पता ही ना चला।
दूसरे दिन दोपहर 12:00 बजे के बाद हमारी आंखें खुली..... लेकिन फिर भी हम लोग अलसाए हुए पड़े रहे।
दोपहर का खाना पूरी तरह से शाकाहारी था जिसे खाने के बाद हम लोग आपस में ही बातचीत करते हुए इस जगह के बारे में जावेद साहब से पूछताछ करते रहे और एक बार फिर से सो गए ,,,,ऐसा लग रहा था जैसे इस जगह में कोई ऐसी तासीर है जिसकी वजह से हमें बहुत ही गहरी और बेहतरीन नींद आ रही थी।
शाम को लगभग 7:00 बजे के आस-पास जावेद साहब अल्मुनियम की केतली में गरमा गरम चाय और कुछ बिस्किट्स लेकर हमारे कमरे में दाखिल हुए और बड़ी मोहब्बत से कुछ हिचकिचाते हुए उन्होंने हमें जगाया वाकई ऐसा लग रहा था जैसे हम लोग मुद्दतों के बाद सोए हो एक अनोखी सी ताज़गी का अहसास हम सभी को हो रहा था शायद यह उस पवित्र दरगाह का असर था जिसकी जद में हम आ चुके थे।
चाय पीने के बाद हम तीनों ने नहाया और उसके बाद तैयार होकर दरगाह के दर्शन करने के लिए हम लोग निकल पड़े गर्मियों की शाम भी अजीब होती है शाम के 8:00 बज रहे थे फिर भी आसमान पर हल्की हल्की रोशनी थी और चांद बादलों से अठखेलियां कर रहा था।
सड़क के दोनों तरफ इत्र और लोबान की बड़ी दिलकश और रूह को सुकून देने वाली खुशबू धुएं का दामन पकड़कर हम लोगों के इर्द-गिर्द चलती रही..... कानों में दूर से आ रही दरगाह की कव्वालियो की आवाज़ बड़ी ही दिलकश लग रही थी।
हम लोग धीरे-धीरे मौला हज़रत अली स की पवित्र दरगाह के बिल्कुल नज़दीक पहुंच गए थे,,, बाहर कुछ फूलों की दुकानें थी जहां पर गुलाब और बेला की बड़ी ही जोरदार खुशबुऐं गमक रही थी वहां से हमने फूल व तिल मे लिपटी हुई शकर की रेवड़ी और लोबान आदि खरीदा और सर पर रुमाल रख कर बड़े ही एहतऱाम के साथ उस पाक दरगाह में दाख़िल हुए।
हिंदू मुस्लिम एकता और गंगा जमुनी तहज़ीब का एक अनोखा मरकज़ थी,,,, ये पवित्रता से भरी हुई एक अनोखी जगह थी जहां हर व्यक्ति अपने दुख तकलीफ को भूलकर भक्ति और श्रद्धा के भाव से परिपूर्ण था......
इस व़क्त वहां पर मौजूद मुस्लिम कउव्वालों का बड़ा समूह कृष्ण रस में भीगी हुई मीरा की दोहावली बड़े ही सुरीले अंदाज़ में गा रहा थे,,
तबला और ढोलक अपनी लयबद्ध थाप के साथ शहनाई और सारंगी से बहते हुए सुरों को और भी रुमानी बना रहे थे,,,,,
मुख्य दो गायक तो बाकायदा विभोर होकर अपनें आंसुओं से भीगी आंखों से कृष्ण की लीलाओं का बखान कर रहे थे,,,, मोरे श्याम पिया ना जाओ मोरी इन अखियन से दूर..... उनकी इस अगाध भक्ति के प्रति हमारा हृदय श्रद्धा के भाव से भर उठा,,, एकाएक हमें लगा कि हम शायद भगवान श्री कृष्ण के किसी भव्य देवालय में आ खड़े हुए हों..... पूरा का पूरा माहौल कृष्ण मय हो रहा था..... वहां पर मौजूद हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदाय के लोग कृष्ण की भक्ति के रस में पूरी तरह से सराबोर होकर झूम रहे थे।
पूरी दरगाह में पाकीज़गी से भरा बेहद रूमानी और गुलाब , बेला के ताज़े फूलों और केवड़े के इत्र से महकती हुई दरो दीवार का माहौल था
दरगाह के भीतर जाने वाली बिछी हुई कालीन की लाइनें बड़ी साफ-सुथरी थीं और हम लोग सर पर रुमाल बांधकर धीरे धीरे दरगाह के भीतर पहुंचे जहां पर मौला हुसैन और हज़रत अब्बास का रौज़ा था..... वहां पर ज़ियारत करनें के बाद बाहर आ गए थे,,,,, साथ ही साथ एक अजब रुहानीं सुकून भी हम लोग महसूस कर रहे थे।
यहां से थोड़ी दूर आगे जाकर बाहर एक बहुत ही लंबा चौड़ा सा आंगन था वहां का नज़ारा बेहद ख़ौफ़नाक और डराने वाला था.... वहां पर कई आदमी और औरतें ज़ंजीरों में जकड़े हुए बड़ी ही तेज़ आवाज़ों में चीख और चिल्ला रहे थे यूं लग रहा था जैसे कोई अदृश्य ताकत उनको सज़ाएं दे रही हो अच्छा खासा मजमा वहां पर लगा हुआ था।
कई लोग वहां पर इस कदर झूम रहे थे जैसे लग रहा था कि वहां पर मौजूद कोई अदृश्य शक्ति है जो उन को बड़ी तेज़ी से नचा रही हो.... उन के साथ जो लोग आए हुए थे वो लोग बड़ी ज़ोर-ज़ोर से उनके लिए दुआएं पढ़ रहे थे।
हमने दरगाह के करिंदो से जब पूछताछ की तो उन्होंने बताया कि यहां पर हर शुक्रवार को रूहों की अदालत लगती है और इन तमाम शैतानी रूहों के फैसले किए जाते हैं,,,, यह सुनकर प्रदीप जी के सहायक को सांप सूंघ गया कुछ हद तक हम लोग भी चकित थे,,, पता चला कुछ मामलों में ये मुकदमे कई कई साल तक चलते हैं और हर बार शैतानी रूहों की यहां पर पेशी होती है,,,,, तब तक पीड़ित के परिवार वाले यही दरगाह के आसपास किराए के मकानों में रुके रहते हैं..... चाहे जितना ही समय क्यों न लग जाए और एक व़क्त वो भी आता है जब ये लोग पूरी तरह से इन शैतानों के चंगुल से पूरी तरह से छूट जाते हैं और उन पर जो शैतानी रूह काबिज़ होती हैं उन्हें हमेशा हमेशा के लिए दोज़ख़ की पवित्र आग में जला दिया जाता है।
यहां आए हुए बहुत से लोग तमाम तरह की मानसिक बीमारियों से भी ग्रस्त होते हैं तो उनके परिजनों को लगता है कि ये भी भूत प्रेत की बाधा से बाधित है,,, तो यहां के सेवादार बाकायदा उनकी समुचित चिकित्सा और पूरी देखभाल की व्यवस्था करते हैं ऐसे लोगों की वहां के मानसिक चिकित्सालय में इलाज की भी सुविधा है,,,, जहां पर उनका बेहतर और निशुल्क इलाज होता है
यहां पर आने वाले सभी धर्मों समुदायों के लोगों की रहने और खाने पीने की व्यवस्था का पूरा इंतज़ाम दरगाह की कमेटी के द्वारा किया जाता है जो कि पूर्णतया निशुल्क होता है।
रात काफी ढल चुकी थी हम लोग थके हारे कदमों से जावेद साहब के घर वापस लौट आए और बिस्तर पर लेट कर रुहानी अदालत और आत्माओं की दुनियां के बारे में बातें करते-करते कब नींद की आगोश में आ गए हमें पता ही न चला और उधर चांद बादलों के साथ लुकाछिपी करते हुए रात के सफर को धीरे धीरे पूरा कर रहा था.....।
सुबह लगभग 8:00 बजे के आस-पास हम लोग पूरी तरह से जग चुके थे और चाय की चुस्कियों के साथ दिन के प्रोग्राम को तय कर रहे थे हमें बताया गया कि दरगाह से चंद कदम दूर एक बाग़ है वहां पर कुछ दरख़्त हैं जो की हजारों साल पुराने है।
वहां पर प्रेत आत्माओं से पीड़ित लोगों को फांसी दी जाती है..... हमारा कौतूहल बढ़ता जा ही रहा था..... हम लोग तैयार होकर वहां पर पहुंच चुके थे तो देखा वहां पर जो लोग से जोकि प्रेत बाधा से ग्रस्त थे उनके गले में रस्सी का फंदा डालकर उनको पेड़ों की डालों से लटका कर फांसी दी जा रही थी।
ये देख कर हम लोग काफी हैरत में पड़ चुके थे।
वहां की अदालत भी पूरी तरह से अपने शबाब पर थी कुछ मौलवी वहां पर दुआओं को पढ़ते हुए फांसी पर लटकाए हुए लोगों से सवाल जवाब कर रहे थे
यक़ीनन वो आवाज़ उन लोगों की नहीं थी जिन आवाज़ों में वो लोग बात कर रहे थे,,,, हमने देखा कि वहां पर जो औरतें फांसी से लटका ही गई थी उनकी आवाज़ बिलकुल मर्दाना और बहुत ही खौफनाक थी उसके बाद वहां पर पवित्र रुहे आती है और उनका फैसला करती हैं..... हम उन अदृश्य सवालों को तो नहीं सुन पा रहे थे लेकिन फांसी पर लटकाए हुए लोगों की जवाबदारी को जरूर सुन पा रहे थे,,,, जबतक वो शैतानी ताकतें पूरी तरह से तौबा नहीं कर लेती थी तब तक उनको फांसी पर ही लटका कर रखा जाता था।
उसके बाद उन प्रेत आत्माओं को भी पवित्र अग्नि में जलाकर ख़त्म कर दिया जाता था ताकि वो फिर किसी इंसानी मख़लूक को परेशान ना कर सके।
खै़र कुछ भी हो इस अजीबो-गरीब मंज़र को देख कर हम लोग बड़ी ही पेशोपेश में पड़ गए थे की कई घंटों तक गले में फांसी का फंदा कसे रहने के बाद भी जो लोग ठीक हो जाते थे वो ज़िंदा कैसे रहें..... तब कारिंदों ने हमें बताया कि जिनको फांसी दी जाती है उनके जिस्म को इसका एहसास भी नहीं होता है उस फांसी की तकलीफ केवल उस शैतानी रूह को होती है जो उन पर काबिज़ होती है।
जो लोग उस दिन वहां पर पूरी तरह से ठीक हो गए थे जब हमने उनसे और उनके परिजनों से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि इस दौरान उन्हें कुछ भी तकलीफ नहीं हुई और सारे घटनाक्रम का उन्हें कुछ भी पता नहीं था।
वहां से लौटकर एक बार फिर से हम लोग उस पवित्र दरगाह के दर्शन के लिए गए और वहां पर सज़दा किया सब के लिए दुआएं मांगते हुए हम सभी दरगाह से वापस जावेद साहब के घर पर आ गए।
अज़ीज़ दोस्तों ईश्वर की बनाई हुई का़यनात और उसमें मौजूद ऐसे अजब और गज़ब मौजजे हमारी आंखों के सामने जब आते हैं तो हमारा सर गहरी आस्था में अपने आप झुक जाता है।
इन दिनों हम तमाम जिन्न, परीज़ात और ऐसी कई बड़ी शैतानी ताकतों से ग्रस्त लोगों से मिले और उनके रूहानी इलाज के बावत उनके परिजनों से पूछताछ की और हर तथ्य को सत्य की कसौटी पर परखते हुए एक निर्णय पर पहुंचे और वह ये था कि आज भी आधुनिक विज्ञान इस तरह के रूहानी मामलों के आगे पूरी तरह से मौन है,, जहां से विज्ञान समाप्त होता है वहां से अध्यात्म प्रारंभ होता है।
दोस्तों मुझे पूरी उम्मीद है कि आपको ये सत्य घटना अवश्य ही रोमांचित कर रही होगी,, आप से गुज़ारिश है कि आप हमें अपने विचारों से अवगत कराइए और आपके जीवन में भी अगर इस तरह की कोई घटना जिसके साक्षी आप हो तो उसे आप भी कमेंट बॉक्स में शेयर करें।
दोस्तों वाकई बड़ी अजीब और हैरान कर देने वाली जगह है,, हुसैन टेकरी,, जहां पर आज भी रूहों की अदालते लगती है
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