नावबीन के दौर का बना रौज़ा काज़मैन, मंसूर नगर लखनऊ साम्प्रदायिक सद्भाव की पहचान है। इस रौज़े की तामील इराक में बने इमाम मूसा ए काज़िम अलैहिस्लाम...
नावबीन के दौर का बना रौज़ा काज़मैन, मंसूर नगर लखनऊ साम्प्रदायिक सद्भाव की पहचान है। इस रौज़े की तामील इराक में बने इमाम मूसा ए काज़िम अलैहिस्लाम के रौज़े की तरह ही करवाई गई और देखने मे उसी की नक़ल दिखता है जबकि थोड़ा सा फ़र्क़ है। काज़मैन के निर्माण का कार्य 1269 हिजरी (1852) में वाजिद अली शाह के शासनकाल के दौरान पूरा हुआ था। दो गुंबदों वाली यह ज़ियरतगाह, वास्तव में इराक के काज़मैन में स्थित मकबरे की नक़ल है।
इसको इमाम रज़ा अलैहिस्लाम के चाहने वाले जगन्नाथ राय ने बनवाया था जिनको सभी लोग गुलाम रज़ा खान के नाम से जानते हैं । इनको नवाब अमजद अली शाह (1842-1847) द्वारा शराफ-उद-दौला की उपाधि से सम्मानित किया गया था
लखनऊ के रौज़ा काज़मैन का प्रवेश द्वार बहुत बड़ा है और इसमें प्रवेश करने के बाद कुछ प्रवेश द्वार दिखाई देते हैं, जिससे मुख्य रौजे में प्रवेश करा जाता है। रौजे के प्रमुख कक्ष में चारों तरफ़ गलियारा है, जिनमें से एक में शराफ़-उद-दौला और उनकी पत्नी की कब्रें हैं।
कहा जाता है कि इस इमामबाड़े को अंग्रेजों ने 1857 में नवाबों के खजाने की तलाश में काफी नुकसान पहुंचाया था लेकिन आज भी यह मज़बूत है और देख रेख होती है। जबकि रौज़े के बाहरी इलाक की हालत अच्छी नही है ।
मुख्य हॉल के बाएं तरफ जहां ज़रि रखी है वही पे इसको बनवाने वाले गुलाम रेज़ा खान की कब्र है जिसपे ज़री रखी हुई है
इसकी छतों पे खूबसूरत शीशे का काम किया हुआ है। शिया समुदाय का यह अहम इमामबाडा माना जाता है और साल भर यहां मजलिस महफ़िल अज़ादारी हुआ करती है और लोग यहाँ अपनी अपनी मुरादोंको ले के आते हैं और उनकी मुरादें पूरी होती हैं।